India News (इंडिया न्यूज), History of Holika Dahan: भारत और दुनिया भर में होली का जश्न हर वर्ष बड़े उत्साह और परंपरा के साथ मनाया जाता है। इस पर्व का आरंभ बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक होलिका दहन से होता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पहली बार होलिका दहन कहां और कैसे हुआ? यह ऐतिहासिक स्थान बिहार के पूर्णिया जिले में स्थित है।

श्रीमद भागवत और स्कंद पुराण में वर्णित कथा

श्रीमद भागवत और स्कंद पुराण में इस घटना का उल्लेख मिलता है। कथा के अनुसार, असुर राजा हिरण्यकश्यपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवान नारायण की भक्ति छोड़ने के लिए अनेक प्रयास किए। जब प्रह्लाद ने अपनी भक्ति नहीं छोड़ी, तो हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका की सहायता ली।

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होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को होलिका की गोद में बिठाकर चिता में आग लगवा दी। लेकिन भगवान नारायण की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहे और होलिका जलकर भस्म हो गई।

भगवान नरसिंह का प्राकट्य

प्रह्लाद के आह्वान पर भगवान नारायण ने नरसिंह रूप में अवतार लिया और हिरण्यकश्यपु का वध किया। यह घटना पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में हुई थी। यहां वह स्थान मौजूद है जहां होलिका की चिता जली थी और भगवान नरसिंह प्रकट हुए थे। इस स्थान पर आज भी वह खंभा है जिससे भगवान नरसिंह प्रकट हुए थे। इसे “प्रह्लाद स्तंभ” के नाम से जाना जाता है।

ऐतिहासिक महत्व

1911 में प्रकाशित गजेटियर में इस स्थान का उल्लेख “मणिक खंभ” के रूप में किया गया है। इसके अलावा ब्रिटेन से प्रकाशित “क्विक पेजेज द फ्रेंडशिप इनसाक्लोपिडिया” में भी इस खंभे की चर्चा की गई है। यह खंभा धरहरा गांव में स्थित है, जो पूर्णिया जिला मुख्यालय से लगभग 32 किलोमीटर दूर है।

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प्रह्लाद स्तंभ और पुरातात्विक खोजें

यह खंभा एक निश्चित कोण पर झुका हुआ है और इसका अधिकांश भाग जमीन के अंदर धंसा हुआ है। इसकी लंबाई लगभग 1411 इंच है। प्रह्लाद स्तंभ के पास की गई खुदाई में पुरातात्विक महत्व के सिक्के भी प्राप्त हुए थे। इसके बाद स्थानीय प्रशासन ने इसके आसपास खुदाई पर रोक लगा दी है।

वर्तमान में आयोजन

प्रति वर्ष होली के अवसर पर यहां राजकीय समारोह होता है। विशाल होलिका दहन के साथ-साथ अनेक रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। यह स्थान न केवल धार्मिक, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

होलिका दहन की यह परंपरा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। यह पर्व हमें सिखाता है कि सत्य और भक्ति की शक्ति से हर संकट का समाधान संभव है। बिहार के पूर्णिया स्थित यह स्थल हमारे इतिहास और संस्कृति की अमूल्य धरोहर है।

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