विदुर का जन्म और उनका व्यक्तित्व
विदुर, महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे, जैसे कि धृतराष्ट्र और पांडु भी थे। हालांकि, उनका जन्म अम्बिका की प्रधान दासी के गर्भ से हुआ था, जो हस्तिनापुर के एक उच्च परिवार से थी। इसी कारण विदुर को समाज में एक अलग स्थान और सम्मान प्राप्त था, लेकिन उनका जन्म होने के कारण वे पांडवों और कोरवों के काका (चाचा) भी थे।
विदुर का व्यक्तित्व अत्यंत बुद्धिमान, धर्मनिष्ठ और दूरदर्शी था। वह हमेशा अपने ज्ञान और समझ से परिस्थितियों को भांपने में सक्षम होते थे और अपने नीतिगत निर्णयों से हस्तिनापुर की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। उन्हें धर्मराज यमराज के अवतार के रूप में भी जाना जाता है। उनके पास भविष्य को देख पाने की अद्भुत क्षमता थी, और यही कारण था कि वह महाभारत युद्ध में भाग लेने से भी मना कर चुके थे।
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महाभारत युद्ध और विदुर का विचलित होना
महाभारत युद्ध की विनाशकारी घटनाओं को देखकर विदुर अत्यधिक विचलित हो गए थे। उन्होंने देखा कि कैसे युद्ध ने असंख्य जीवनों को नष्ट कर दिया और धर्म के मार्ग से भटकते हुए लोग विनाश की ओर बढ़ रहे थे। युद्ध की भयावहता और उसके परिणामों से वह आहत हो गए थे। इस स्थिति में उन्होंने भगवान कृष्ण से अपनी मृत्यु के बारे में एक विशेष वरदान मांगा।
विदुर का विचित्र वरदान और भगवान कृष्ण से विनती
विदुर ने भगवान कृष्ण से कहा कि वह न तो जल में प्रवाहित किए जाएं, न जलाया जाएं और न ही दफनाया जाए। उनका यह विशिष्ट अनुरोध था कि वह मृत्यु के बाद सुदर्शन चक्र में विलीन हो जाएं। उनका मानना था कि ऐसा करने से उनका शरीर इस धरती पर नष्ट नहीं होगा और न ही उनका अस्तित्व कोई शेष रहेगा, बल्कि वह पूरी तरह से भगवान के चक्र में समाहित हो जाएंगे, जो उनके लिए एक सर्वोत्तम मोक्ष का रूप होगा।
भगवान कृष्ण, जो अपने भक्तों के अनुरोधों को पूरी तरह से समझते थे, ने इस विचित्र इच्छापूर्ति को स्वीकार कर लिया। विदुर का यह निवेदन इस बात को दर्शाता है कि वह भगवान कृष्ण के परम भक्त थे और मृत्यु के बाद भी वह अपने अस्तित्व को केवल भगवान में विलीन करना चाहते थे, न कि इस संसार में किसी भौतिक रूप में।
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विदुर की मृत्यु और उनका सुदर्शन चक्र में विलीन होना
महाभारत युद्ध के बाद, जब पांडव वन में गए और वहां विदुर से मिलने पहुंचे, तो युधिष्ठिर ने देखा कि विदुर ने अपनी देह को त्याग दिया था। विदुर ने युधिष्ठिर को देखकर अपने प्राणों का त्याग किया और वह श्री कृष्ण के कृपा से सीधे उनके भीतर समाहित हो गए। विदुर की यह मृत्यु और उनका कृष्ण में समाहित होना यह दर्शाता है कि वह धर्मराज यमराज के अवतार थे और उनका अंतिम समय भगवान कृष्ण के साथ मिलकर मोक्ष प्राप्त करने का था।
श्री कृष्ण का उत्तर
जब युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से विदुर की मृत्यु के बारे में पूछा, तो श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि विदुर धर्मराज यमराज के अवतार थे और अब वह युधिष्ठिर में समाहित हो गए हैं। इस प्रकार, विदुर का प्राण त्यागना और उनका कृष्ण में समाहित होना यह सिद्ध करता है कि वह न केवल अपने समय के सबसे बड़े ज्ञानी थे, बल्कि भगवान कृष्ण के परम भक्त भी थे, जिन्होंने अपने अंतिम समय में भी कृष्ण के साथ अपने अस्तित्व को जोड़ने की इच्छा व्यक्त की।
विदुर की विचित्र मृत्यु और उनकी सुदर्शन चक्र में विलीन होने की कहानी हमें यह सिखाती है कि भक्तों की परम भक्ति और भगवान के प्रति समर्पण में कोई सीमा नहीं होती। विदुर ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी भगवान कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति को सिद्ध किया और मोक्ष की प्राप्ति के लिए वह केवल भगवान में समाहित होना चाहते थे। उनका यह महान उदाहरण हमें यह बताता है कि सच्चे भक्त के लिए मृत्यु भी एक प्रकार का मोक्ष और भगवान के साथ एकता का अवसर होती है।