India News(इंडिया न्यूज), R. Madhavan GD Naidu Film: भारतीय सिनेमा में बायोपिक्स का चलन बढ़ता जा रहा है और अब एक और प्रेरणादायक व्यक्तित्व की कहानी बड़े पर्दे पर आने वाली है। अभिनेता आर. माधवन, जिन्होंने ‘रॉकेट्री- द नंबी इफेक्ट’ में इसरो वैज्ञानिक नंबी नारायणन का किरदार निभाकर तारीफें बटोरी थीं, अब अपनी अगली फिल्म में एक ऐसे आविष्कारक का रोल निभाने जा रहे हैं, जिन्हें ‘भारत का एडिसन’ कहा जाता था। यह फिल्म प्रसिद्ध वैज्ञानिक और इनोवेटर गोपालस्वामी दुरईस्वामी नायडू पर आधारित होगी, जिन्हें दुनिया ने तो सराहा, लेकिन भारत में उन्हें भुला दिया गया।
तीसरी कक्षा में छोड़ी पढ़ाई
जी. डी. नायडू का जन्म 23 मार्च 1893 को तमिलनाडु के कोयंबटूर में हुआ था। बचपन से ही पढ़ाई में उनकी रुचि नहीं थी, यहां तक कि तीसरी कक्षा में ही उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। लेकिन उनका दिमाग हमेशा नई चीजें समझने और बनाने की ओर आकर्षित रहता था। यह जिज्ञासा ही उन्हें भारत के सबसे बड़े आविष्कारकों में से एक बना गई।
कैसे की इनोवेटिव जर्नी की शुरुआत?
महज 20 साल की उम्र में नायडू अपने पिता के खेतों में काम कर रहे थे, जब उन्होंने पहली बार बिना बैल या घोड़े के चलने वाली एक मोटरसाइकिल देखी। इससे वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने खुद के लिए एक बाइक खरीदने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने कई छोटे-मोटे काम किए, जिनमें एक रेस्टोरेंट में वेटर की नौकरी भी शामिल थी। आखिरकार, तीन साल की मेहनत के बाद 400 रुपये इकट्ठा कर उन्होंने एक मोटरसाइकिल खरीदी। लेकिन बाइक चलाने से ज्यादा उन्हें उसके अंदर की तकनीक समझने में दिलचस्पी थी, इसलिए उन्होंने उसकी हर एक पार्ट खोलकर देखा और समझा कि यह कैसे काम करती है। यही उनकी इनोवेटिव जर्नी की शुरुआत थी। उनके जीवन में हुई इस सभी बातों का जिक्र उनके जीवन पर आधारित किताब ‘अप्पा’ में किया गया है, इस किताब को एक तमिल राइटर शिवशंकरी ने लिखा था।
बस सेवा से उद्यमी बनने तक का सफर
मोटरसाइकिल के प्रति उनकी दीवानगी ने उन्हें मैकेनिक बना दिया। इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश बिजनेसमैन रोबर्ट स्टेन्स के साथ काम करना शुरू किया, जिनसे उन्होंने अंग्रेजी भी सीखी। स्टेन्स ने नायडू की जिज्ञासा को पहचाना और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। 1920 में नायडू ने अपनी पहली बस चलाई, जो पोल्लाची से पलनी के बीच चलती थी। धीरे-धीरे उनका ट्रांसपोर्ट कारोबार बढ़ता गया और 1933 तक उनके पास 280 बसों की पूरी फ्लीट थी। उनकी कंपनी ‘यूनाइटेड मोटर सर्विस’ कोयंबटूर में ट्रांसपोर्ट सिस्टम की क्रांति ले आई। उनके बस स्टैंड और टर्मिनल इतने साफ-सुथरे थे कि एक बार एक जर्मन कपल, जो होटल की खराब सर्विस से नाराज था, उसने बस टर्मिनल पर ही रहना शुरू कर दिया!
ब्लेड-रेजर से लेकर इलेक्ट्रिक कार तक
विदेश यात्राओं के दौरान नायडू ने नई-नई तकनीकों को करीब से देखा और भारत में इनोवेशन लाने का फैसला किया। उन्होंने केरोसीन से चलने वाला पंखा, MICA कैपेसिटर, कैमरों के लिए डिस्टेंस एडजस्टर और स्टील के सुपर-थिन शेविंग ब्लेड जैसे कई आविष्कार किए। लेकिन उनका सबसे चर्चित इनोवेशन था, सेल से चलने वाला इलेक्ट्रिक रेजर। यूरोप में उन्होंने खिलौने वाली एक कार की मोटर को मॉडिफाई कर इसमें ब्लेड फिट कर दिया और इस तरह उन्होंने ‘रसंत रेजर’ का आविष्कार किया। इसे यूरोप में पेटेंट कराया गया और कुछ ही हफ्तों में इसकी 7500 यूनिट बिक गईं। इसी तरह, उन्होंने 1952 में भारत की पहली टू-सीटर इलेक्ट्रिक कार भी बना ली थी। हालांकि, ‘लाइसेंस राज’ के चलते वह इसका उत्पादन नहीं कर सके।
कृषि में भी नवाचार के जरिए लाई क्रांति
नायडू सिर्फ मशीनों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने कृषि में भी कई महत्वपूर्ण आविष्कार किए। उन्होंने अधिक ऊंचाई वाले कपास के पौधे, उन्नत किस्म का बाजरा और खेती के लिए विशेष इंजेक्शन जैसी तकनीकों को विकसित किया। वह मानते थे कि विज्ञान का असली उपयोग समाज की सेवा में होना चाहिए।
महान वैज्ञानिकों ने भी मानी नायडू की प्रतिभा
नायडू की प्रतिभा और उनकी खोजों को दुनियाभर में सराहा गया। वह महात्मा गांधी से लेकर एडोल्फ हिटलर तक की तस्वीरें खींच चुके थे। भारत के नोबेल विजेता वैज्ञानिक सी. वी. रमन ने उनके बारे में कहा था, “मिस्टर जी. डी. नायडू के व्यक्तित्व को, उनकी विभिन्न उपलब्धियों और उनके चरित्र को शब्दों में समेटने के लिए मुझसे भी अधिक शक्तिशाली लेखनी की जरूरत होगी।”
ऐसे भुला दिए गए ‘भारत के एडिसन’
हालांकि, जितने बड़े आविष्कार नायडू ने किए, उतना ही तेजी से उनका नाम भुला दिया गया। 1974 में उनका निधन हो गया और धीरे-धीरे उनकी उपलब्धियां भी इतिहास के पन्नों में खो गईं। लेकिन उनकी बनाई पहली पॉलीटेक्निक, कई स्कॉलरशिप और साइंस ग्रांट आज भी उनकी विरासत को जिंदा रखे हुए हैं। अब, आर. माधवन की फिल्म ‘G.D.N.’ से एक बार फिर जी. डी. नायडू की कहानी सामने आएगी। उम्मीद की जा रही है कि इस फिल्म के जरिए भारत के इस भूले-बिसरे वैज्ञानिक को वह पहचान मिलेगी, जिसके वे हकदार थे।
कितनी जरुरी ये फिल्म ?
जी. डी. नायडू जैसे वैज्ञानिक, जिन्होंने भारत को तकनीक और इनोवेशन के क्षेत्र में आगे बढ़ाने की नींव रखी, आज गुमनामी में हैं। उनकी विरासत को फिर से रोशनी में लाने की जरूरत है। अब देखना होगा कि माधवन की यह फिल्म क्या लोगों को थिएटर से निकलने के बाद भी नायडू के बारे में और जानने को प्रेरित कर पाएगी?