दिल्ली का 10 साल पुराना छावला रेप केस एक बार फिर चर्चा में है। वजह ऐसी है जिस पर विश्वास करने का मन नहीं। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल पुराने इस मामले में फैसले को बदलते हुए सोमवार को तीनों आरोपियों को बरी कर दिया। बता दें निचली अदालत और हाईकोर्ट ने गैंगरेप और हत्या से जुड़े इस केस को रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ मानते हुए तीनों दोषियों को फांसी की सजा सुनाई थी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने सबको हैरान कर दिया है। पीड़िता की मां ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपनी हार बताया. उन्होंने कहा कि मैं हार गई. उनका कहना है कि इस फैसले के इंतजार में हम जिंदा थे. लेकिन अब हार गए. हमें उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट से उनकी बेटी को इंसाफ मिलेगा. लेकिन इस फैसले के बाद अब जीने का कोई मकसद नहीं बचा

बरी करने में पुलिस की घोर लापरवाही

सुप्रीम कोर्ट ने तीनों दोषियों को बरी करने में पुलिस की घोर लापरवाही को अपने फैसले का आधार बनाया. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अदालतें सबूतों पर चलकर फैसले लेती है ना कि भावनाओं में बहकर. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आरोपियों को अपनी बात कहने का पूरा मौका नहीं मिला. बता दें ये मामला 2012 का है। जब कार में उसके साथ घंटों तक ज्यादती किया और फिर दरींदगी की हद पार करते हुए उसकी हत्या कर दी।

पुलिस की लापरवाही का दोषियों को मिला फायदा

पुलिस की लापरवाही और सुप्रीम कोर्ट का फैसला पुलिस ने आरोपियों के 16 फरवरी को डीएनए टेस्ट के लिए सैंपल लिए. लेकिन पुलिस की कारस्तानी देखिए, अगले 11 दिनों तक सैंपल पुलिस थाने के मालखाने में पड़े रहे. यानी 27 फरवरी को वो सैंपल सीएफएसएल भेजे गए. पुलिस की इसी लापरवाही का कोर्ट में दोषियों को फायदा मिला. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आरोपियों को अपनी बात कहने का पूरा मौका नहीं मिला. चाव पक्ष की दलील थी गवाहों ने भी आरोपियों की पहचान नहीं की. कुल 49 गवाहों में दस का क्रॉस एग्जामिनेशन नहीं कराया गया. आरोपियों की पहचान के लिए कोई परेड नहीं कराई गई. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि निचली अदालत ने भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया. निचली अदालत अपने विवेक से भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत सच्चाई की तह तक पहुंचने के लिए आवश्यक कार्यवाही कर सकता था. ऐसा क्यों नहीं किया गया?