India News (इंडिया न्यूज), Forest Fire: उत्तराखंड के देहरादून में हर साल जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, और इस समस्या का एक बड़ा कारण है ‘कंट्रोल बर्निंग’। यह तकनीक अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है, जिसे आज भी वन विभाग जंगलों को बचाने के लिए अपनाता है। हालांकि, अब यह तकनीक अपनी उपयोगिता खोती नजर आ रही है और पर्यावरण के लिए हानिकारक साबित हो रही है।
बारिश के चलते तकनीक पड़ी उलटी
कंट्रोल बर्निंग का उद्देश्य जंगलों में आग के खतरे को कम करना और जंगलों से घास-फूस व सूखी लकड़ियां जैसी ज्वलनशील सामग्री को हटाना होता है, ताकि जंगल में आग लगने के जोखिम को कम किया जा सके। लेकिन हाल के वर्षों में यह तकनीक उलटी पड़ रही है। अनुमान के मुताबिक, हर साल होने वाले वनाग्नि के नुकसान में लगभग 20 फीसदी हिस्सा कंट्रोल बर्निंग से आता है। पिछले साल भी करीब 4 फीसदी वनाग्नि की घटनाएं कंट्रोल बर्निंग के कारण हुईं।
वातावरण को करता है प्रदूषित
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि कंट्रोल बर्निंग से हवा में ब्लैक कार्बन जैसे हानिकारक तत्व फैलते हैं, जो न केवल वातावरण को प्रदूषित करते हैं, बल्कि जंगलों के पारिस्थितिकी तंत्र को भी नुकसान पहुंचाते हैं। दून विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक प्रो. विजय श्रीधर के अनुसार, यह प्रक्रिया अब नुकसानदेह साबित हो रही है और इसका पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
कंट्रोल बर्निंग को रोकने की अपील
इस मुद्दे पर कई पर्यावरण प्रेमियों ने वन विभाग से कंट्रोल बर्निंग को रोकने की अपील की है और इस पर कानूनी कार्रवाई करने की भी योजना बनाई है। अनिल कक्कड़ जैसे पर्यावरणविदों का कहना है कि यह पुरानी तकनीक अब आदर्श नहीं रही और इसे बंद किया जाना चाहिए। APCCF वनाग्नि प्रबंधन निशांत वर्मा का कहना है कि कंट्रोल बर्निंग जंगलों के फ्यूल लोड को कम करने का एक उपाय है, लेकिन इसके साथ ही पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए अन्य उपायों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जैसे कि चीड़ के पिरूल से ब्रिकेट बनाना और पत्तियों से खाद तैयार करना।
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